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पाठ इस्लाम में परिवार का स्थान

इस पाठ में हम इस्लाम में परिवार की अवधारणा (मफ़हूम) और उस में इस के स्थान के बारे में जानेंगे।

  • इस्लाम में परिवार की अवधारणा (मफ़हूम) की जानकारी प्राप्त करना।
  • इस्लाम में परिवार के स्थान का बयान।
  • इस्लाम में परिवार निर्माण के स्तंभों की जानकारी प्राप्त करना।

:एक और छात्र गिनें जिस ने इस पाठ को पूरा किया है

उम्मत का मतलब

उम्मत का गठन उन व्यक्तियों के समूह से होता है जिन्हें विभिन्न पार्ट मिल जुल कर इकट्ठा करते हैं, जैसे मूल, भाषा, इतिहास। और इन सब में सब से बढ़ कर धर्म है। और ये व्यक्ति केवल वैवाहिक घरों से निकले थे, पतियों और पत्नियों से, और बदले में, वे नए परिवार बनाएंगे जो बेटे और बेटियां पैदा करेंगे जो मार्च जारी रखेंगे, और इस प्रकार राष्ट्र बना रहेगा और जारी रहेगा।

अच्छा वैवाहिक जीवन (पाकीज़ा इज़दिवाजी ज़िंदगी) ही उम्मत के जीवन की नींव है, और इसी लिए उस नींव पर ध्यान देना आवश्यक है, जो कि परिवार है।

बावुजूद इस के कि इंसान फ़ित्रतन् (स्वभावतः) एक सामाजिक प्राणी है, वह केवल ऐसे समाज में रहना सहज महसूस करता है जिसे उस के अफ़राद (सदस्यों) के साथ मुख़्तलिफ़ रिश्ते (विभिन्न संबंध) जोड़ते हैं, लेकिन उसे सीमित संख्या में व्यक्तियों -अर्थात् परिवार के सदस्यों- के साथ कुछ जज़बात और भावनाओं को आवंटित (ख़ास) करने की आवश्यकता होती है। और परिवार इस्लाम में एक सामाजिक इकाई है जिस में कानूनी विवाह से जुड़े एक पुरुष और एक महिला और परिणामी संतानें शामिल होती हैं।

और इस्लाम ने इस इकाई का ध्यान रखते हुये लोगों को शादी करने के लिए आग्रह करने से शुरू कर के, बच्चों के अधिकारों की देखभाल करने से ले कर एक ही परिवार के सभी सदस्यों के बीच संबंधों को विनियमित (मुनज़्ज़म) करने तक उस की ज़िम्मेदारी ली है। और यह पारिवारिक संरचना (ख़ानदानी इमारत) मानव की मानवता की उज्ज्वल छवि है जैसा अल्लाह तआला ने चाहा।

इस्लाम में परिवार का मक़ाम व मर्तबा

١
इस्लाम में परिवार एक स्वस्थ और संतुलित मानव समाज के निर्माण का मूल आधार है।
٢
परिवार वह उज्ज्वल, शुद्ध छवि है जिस से व्यक्ति उभरते हैं और जिस के साया तले बंधन बनते हैं।
٣
इस्लाम में परिवार पहली कोशिका (छत्ता) है जिस में किसी व्यक्ति के स्वस्थ सामाजिक व्यवहार के प्रकार बनते हैं, और उस में उसे अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों की जानकारी होती है।
٤
इस्लाम में परिवार वह है जो अपने वंश को बढ़ाने के लिए पिता की जन्मजात प्रवृत्ति का पोषण करता है, इस प्रकार मानव प्रजाति के संरक्षण के लक्ष्य को प्राप्त करता है।
٥
जो चीज़ें इस्लाम में परिवार के अज़ीम मक़ाम व मर्तबा को दर्शाती है उन में से एक यह है कि अल्लाह तआला ने इसे उन कई नेमतों में शुमार किया है जो उस ने मनुष्य को दिए हैं। अल्लाह तआला ने फ़रमायाः {يَا أَيُّهَا النَّاسُ اتَّقُوا رَبَّكُمُ الَّذِي خَلَقَكُمْ مِنْ نَفْسٍ وَاحِدَةٍ وَخَلَقَ مِنْهَا زَوْجَهَا وَبَثَّ مِنْهُمَا رِجَالًا كَثِيرًا وَنِسَاءً} [النساء: 1]. “ऐ लोगो! अपने उस पालनहार से डरो जिस ने तुम को एक जान से पैदा किया और उसी से उस की बीवी को पैदा किया और दोनों से बहुत से मर्द-औरत फैला दिये।” {अन्निसाः 1}

इस्लाम में विवाह

अल्लाह तआला ने पुरुष और महिला में से हर एक के अंदर एक-दूसरे के प्रति सहज झुकाव पैदा किया है, और उस ने इस झुकाव को पूरा करने, इंसानी नस्ल की वृद्धि और अपनी प्रजाति को संरक्षित करने के लिए विवाह को एक वैध साधन बनाया। और इस्लाम ने पवित्र कुरान और रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत में विवाह पर प्रोत्साहित किया है।

इस्लामी परिवार का निर्माण दो मुख्य स्तंभों पर निर्भर करता है

आत्मिक समर्थन (नफ्सियाती सपोर्ट)

और यह दिली सुकून व शांति, महब्बत व शफ़क़त और दया को शामिल है जिस का ज़िक्र अल्लाह तआला के इस फ़रमान में किया गया हैः {وَمِنْ آيَاتِهِ أَنْ خَلَقَ لَكُمْ مِنْ أَنْفُسِكُمْ أَزْوَاجًا لِتَسْكُنُوا إِلَيْهَا وَجَعَلَ بَيْنَكُمْ مَوَدَّةً وَرَحْمَةً إِنَّ فِي ذَلِكَ لَآيَاتٍ لِقَوْمٍ يَتَفَكَّرُونَ} [الروم: 21]. “और उस की निशानियों में से है कि तुम्हारी ही जिंस से बीवीयाँ पैदा कीं ताकि तुम उन से सुख पाओ, उस ने तुम्हारे बीच महब्बत ओर हमदर्दी क़ायम कर दी, बेशक ग़ौर व फ़िक्र करने वालों के लिए इस में बहुत सी निशानियाँ हैं।” {अर्रूमः 21}

शारीरिक समर्थन (माद्दी सपोर्ट)

और इस में अनुबंध की शर्तों को पूरा करना और प्रत्येक पति या पत्नी की अपने कर्तव्यों के प्रति प्रतिबद्धता -जैसे भरण-पोषण, देखभाल, घर के काम काज अंजाम देना और बच्चों के हितों को ध्यान में रखना- शामिल है।

इस्लाम पति-पत्नी दोनों को इस संरचना (इमारत) की देखभाल करने और इसे संरक्षित करने के लिए प्रोत्साहित करता है। ताकि यह इमारत गिर न जाये और उस की छाया में शरण लेने वाले लोगों को तितर-बितर न कर दे। इसी लिए इस्लाम सब्र करने और वैवाहिक संबंध को जारी रखने का आग्रह करता है, भले ही दोनों पक्षों के बीच स्नेह व शफ़क़त मफ़क़ूद हो। अल्लाह तआला ने फ़रमायाः {وَعَاشِرُوهُنَّ بِالْمَعْرُوفِ فَإِنْ كَرِهْتُمُوهُنَّ فَعَسَى أَنْ تَكْرَهُوا شَيْئًا وَيَجْعَلَ اللَّهُ فِيهِ خَيْرًا كَثِيرًا} [النساء: 19]. “और उन के साथ अच्छे तरीक़े से गुज़र बसर करो, गो तुम उन्हें ना पसंद करो लेकिन बहुत मुमकिन है कि तुम एक चीज़ को बुरा जानो और अल्लाह उस में बहुत ही भलाई कर दे।” {अन्निसाः 19}

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