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पाठ सलात के अर्कान, उस के वाजिबात, उस के मुब्तिलात (उस को बातिल करने वाली चीज़ें) और उस के मकरूहात

सलात के चंद अर्कान तथा वाजिबात हैं जिन के बग़ैर सलात क़ायम नहीं हो सकती। और (कभी) उस के साथ कुछ ऐसा होता है जो उसे अमान्य कर देता है। इस चैप्टर (अध्याय) में आप सलात के अर्कान व वाजिबात, उस को बातिल करने वाली चीज़ों तथा उस के मकरूहात के बारे में जानेंगे।

∙ सलात के अर्कान की जानकारी।∙ सलात के वाजिबात की जानकारी।∙ सलात को बातिल करने वाली चीज़ों की जानकारी।∙ सज्द -ए- सह्व की जानकारी।∙ सलात के मकरूहात की जानकारी।

:एक और छात्र गिनें जिस ने इस पाठ को पूरा किया है

सलात के अर्कान

अर्कान सलात के वह मुख्य भाग हैं जिन को जानबूझ कर छोड़ने से सलात बातिल (अमान्य) हो जाती है। और अगर वह भूल चूक से छूट जायें तो उन को लाना (अंजाम देना) ज़रूरी है, अन्यथा सलात बातिल हो जायेगी।

सलात के अर्कान

١
तक्बीरे तहरीमा
٢
क़ुदरत के साथ क़ियाम (क्षमता होने पर खड़ा होना)
٣
सूरह फ़ातिहा पढ़ना
٤
रुकू
٥
रुकू से उठना और सक्षम व्यक्ति का बराबर (सीधा) खड़ा होना
٦
सज्दा
٧
दो सज्दे के दरमियान बैठना
٨
आख़िरी तशह्हुद और उस के लिए बैठना
٩
इत्मीनान (सुकून व शांति)
١٠
सलाम
١١
अर्कान में तर्तीब

सलात के वाजिबात

सलात के वाजिबात यानी नमाज़ के वह अनिवार्य भाग जिन को जानबूझ कर छोड़ने से सलात बातिल (अमान्य) हो जाती है। और अगर वह भूल चूक से छूट जायें तो अपनी नमाज़ पूरी कर ले, फिर सलात के आख़िर में सज्द -ए- सह्व कर ले।

सलात के वाजिबात

١
तमाम तक्बीरें सिवाय तक्बीरे तहरीमा के
٢
रुकू में एक मरतबा “सुब्हान रब्बियल् अज़ीम” यानी “पाक है मेरा रब जो बड़ी अज़मत वाला है” पढ़ना।
٣
अकेले नमाज़ पढ़ने वाले और इमाम के लिए “समिअल्लाहु लिमन् हमिदह” यानी “सुन ली अल्लाह ने उस की जिस ने उस की तारीफ़ की” कहना।
٤
सारे नमाज़ीयों के लिए “रब्बना व लकल् हम्द” यानी “ऐ हमारे रब! तेरे ही लिए तारीफ़ है” कहना।
٥
सज्दे में एक मरतबा “सुब्हान रब्बियल् आ’ला” यानी “पाक है मेरा रब जो सब से बुलंद है” कहना।
٦
दोनों सज्दे के दरमियान की बैठक में “रब्बिग़फ़िर् ली” यानी “ऐ मेरे रब! मुझे माफ़ कर दे” कहना।
٧
पहला तशह्हुद और उस के लिए बैठना।

भूल जाने से यह वाजिबात साक़ित (माफ़) हो जाते हैं, और उन की पूर्ति सज्द -ए- सह्व से हो जाती है।

सलात की सुन्नतें

सलात के विवरण में वर्णित शब्दों और कर्मों (अक़वाल व अफ़आल) जो उस के अर्कान तथा वाजिबात में से नहीं है वह सलात की ऐसी पूरक सुन्नतें हैं जिन की हिफ़ाज़त करनी चाहिये, लेकिन उन के छोड़ देने से सलात बातिल (अमान्य) नहीं होती है।

सज्द -ए- सह्व

सज्द -ए- सह्व दो सज्दे हैं जिन्हें अल्लाह तआला ने नमाज़ में कमी व ख़ामी को दूर करने के लिए मशरू क़रार दिया (निर्धारित किया) है।

सज्द -ए- सह्व कब करना मशरू है?

١
जब विस्मृति तथा भूल के कारण नमाज़ के रुकू, सज्दा, क़ियाम या बैठक में ज़्यादती (वृद्धि) हो जाये तो सज्द -ए- सह्व करे।
٢
जब नमाज़ के अर्कान में कोई कमी पाई जाये तो ज़रूरी है कि छूटे हुये रुक्न को पूरा करे और अपनी नमाज़ के अंत में सज्द -ए- सह्व करे।
٣
जब विस्मृति तथा भूल के कारण नमाज़ के वाजिबात में से कोई वाजिब -जैसे पहला तशह्हद- फ़ौत हो जाये तो सज्द -ए- सह्व करे।
٤
जब रकअतों की संख्या में संदेह करे तो यक़ीन पर बिना (निश्चतता पर भित्ति) यानी कम पर करे और सज्दा -ए- सह्व करे।

सज्दा -ए- सह्व का तरीक़ा

सज्दा -ए- सह्व के लिए दो वक़्त हैं, उन दोनों में से जिसे चाहे इख़्तियार करेः

١
आख़िरी तशह्हुद के बाद और सलाम फेरने से पहले सज्दा -ए- सह्व करे फिर सलाम फेरे।
٢
नमाज़ से सलाम फेरने के बाद सह्व के दो सज्दे करे फिर दोबारा सलाम फेरे।

नमाज़ को फासिद करने वाली चीज़ें

यानी वह चीज़ें जो नमाज़ को बातिल तथा अमान्य कर देती हैं, और उस का दोहराना (रीपिट करना) वाजिब हो जाता है।

नमाज़ को फासिद करने वाली चीज़ें

١
किसी रुक्न या शर्त को उस के अदा करने की ताक़त रखते हुये भी जान बूझ कर छोड़ देना, या सतर्क करने के बाद भी भूल कर उसे वापस न अदा करना।
٢
जान बूझ कर नमाज़ के वाजिबात में से कोई वाजिब छोड़ देना।
٣
जान बूझ कर बात करना
٤
आवाज़ के साथ हँसना
٥
बग़ैर किसी ज़रूरत के बहुत ज़्यादा मुसलसल हरकत करना

नमाज़ के मकरूहात

और ये ऐसे कार्य हैं जो नमाज़ की नेकी को कम कर देते हैं और उस के ख़ुशू व ख़ुज़ू तथा हैबत व श्रद्धा को छीन लेते हैं।

नमाज़ में ताकझाँक करना (इधर उधर देखना)

क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से ताकझाँक के संबंध में पूछा गया तो आप ने फ़रमायाः “यह एक झपट है जिस के ज़रीये से शैतान बंदे की नमाज़ का कुछ हिस्सा उचक लेता है।” {बुख़ारीः 751}

हाथ और चेहरा आदि से खेलना

हाथ को कमर पर रखना और उंगलीयों को आपस में मिलाना तथा उन्हें फोड़ना

नमाज़ में प्रवेश करे इस हाल में कि उस का दिल उस से ग़ाफ़िल हो।

ट्वाइलेट की ज़रूरत हो या खाने की ज़रूरत हो और खाना तैयार भी हो। जैसे कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः “खाने की मौजूदगी में नमाज़ नहीं और न उस वक़्त जब कि पेशाब पाख़ाने की सख़्त ज़रूरत हो।” {मुस्लिमः 560}

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