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पाठ मृतकों के प्रति संवेदना और शोक
सांत्वना
मृतकों के परिवार को सांत्वना देना, उन के रिश्तेदारों को दिलासा देना, और उन की मुसीबत पर ऐसी अच्छी बात के ज़रीया उन की हिम्मत अफ़ज़ाई करना, जिस में मैइत के लिए दुआ, उन के परिवार और रिश्तेदारों के लिए सब्र व सबात की तलक़ीन और अल्लाह के पास अज्र व सवाब की उम्मीद करने की याद दिहानी मुस्तहब है। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपनी बेटी ज़ैनब रज़ियल्लाहु अन्हा को उन के बेटे के संबंध में सांत्वना देते हुये फ़रमायाः «إِنَّ لِلَّهِ مَا أَخَذَ، وَلَهُ مَا أَعْطَى، وَكُلٌّ عِنْدَهُ بِأَجَلٍ مُسَمًّى، فَلْتَصْبِرْ، وَلْتَحْتَسِبْ» “बेशक अल्लाह ही के लिए है जो उस ने लिया और उसी का है जो उस ने दिया। और हर चीज़ उस के पास एक मुक़र्रर वक़्त के साथ है, पस सब्र करे और अल्लाह से सवाब की उम्मीद रखे।” {बुख़ारीः 1284, मुस्लिमः 923}
मृतक को दफनाने से पहले और बाद में उस के रिश्तेदारों को कहीं भी, चाहे मस्जिद, कब्रिस्तान, घर या कर्मस्थान आदि में सांत्वना दी जा सकती है।
तंबू स्थापित कर के, या खाने की पार्टी दे कर तथा लोगों को उस के लिए इकट्ठा कर के शोक समारोहों में अतिरंजन (मुबालग़ा) नहीं किया जाना चाहिए। क्योंकि यह अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तथा आप के सहाबीयों की सुन्नत में से नहीं है। और फिर यह खुशी और आनंद का अवसर नहीं है कि इस के लिए इस तरह का काम किया जाये।
मृतक पर ग़म तथा शोक पालन
रोना एक प्राकृतिक दया है और हानि और दुख की अभिव्यक्ति (फुक़दान और हुज़्न व मलाल का इज़हार) है। बेशक नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की आँखों के सागर अपने बेटे इब्राहीम की वफ़ात पर छलके थे। {बुख़ारीः 1303, मुस्लिमः 2315}
मृतकों पर शोक के लिए इस्लाम ने चंद नियम निर्धारित किया है:
अपने पति के मरने की प्रतीक्षा अवधि की मुद्दत (समय सीमा) है
चार महीने दस दिन, या अगर वह गर्भवती है तो गर्भ जनने तक।
अपने पति की मृत्यु की प्रतीक्षा अवधि में महिला पर क्या है?
कब्रिस्तान की ज़ियारत: कब्रिस्तान की ज़ियारत को तीन क़िस्मों में बाँटा गया हैः
1- मुस्तहब ज़ियारत
यह क़ब्रों की वह ज़ियारत है जो मौत, क़ब्र और दारे आख़िरत (परलोक) को याद दिलाती है। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः “मैं तुम को क़ब्रों की ज़ियारत से मना करता था पस अब उन की ज़ियारत करो।” और एक रिवायत में हैः “क्योंकि वह आख़िरत को याद दिलाती है।” {मुस्लिमः 977, तिर्मिज़ीः 1054} और कब्रों की यह ज़ियारत उसी जगह या शहर (या आस पास) में होनी चाहिये, क्योंकि क़ुर्बत व इबादत की ग़र्ज़ से तीन मस्जिदों के अलावा कहीं के लिए मुस्तक़िल सफ़र या स्वतंत्र यात्रा की इजाज़त नहीं है।
2- जायज़ ज़ियारत
यह ज़ियारत किसी जायज़ मक़सद के लिए है, मृत्यु को याद करने के लिए नहीं, और यह किसी हराम चीज़ को भी शामिल नहीं है, जैसे कि किसी रिश्तेदार या दोस्त की कब्र की ज़ियातर करे और उस के दिल में आख़िरत को याद करने की नीयत हो।
3- हराम (निषिद्ध) ज़ियारत
यह ऐसी ज़ियारत है जिस में कुछ वर्जित चीज़ें शामिल होती हैं, जैसे कब्र पर बैठना और उस पर चलना, गाल नोचना, वा वैला मचाना, नौहा करना और विलाप करना। या उस में कुछ बिदअतों का संमिश्रण घटे, जैसे कब्रवासी को पुकारना, क़ब्र वाले को वसीला बनाना, कब्र को स्पर्श कर के उस से बरकत लेना। या उस में कोई शिर्की काम -जैसे क़ब्र वाले से जरूरतें पूरी करने की दरख़ास्त करना और उस से मदद मांगना- पाया जाये।
मुसलमान के कब्रों की ज़ियारत के कई उद्देश्य होने चाहिए:
कब्रों की ज़ियारत करते समय इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि मृतक के सम्मान और ताज़ीम करते हुये क़ब्रों पर न बैठें और न चलें। इसी कारण से नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उस की सज़ा बयान करते हुये फ़रमायाः "तुम में से किसी शख़्स का अंगारे पर बैठना, जो उस के कपड़े को जला दे और उस आग का असर उस की खाल तक पहुँच जाये, किसी क़ब्र पर बैठने से बेहतर है।" {मुस्लिमः 971}
क़ब्रिस्तान की ज़ियारत करते समय दुआ करना
क़ब्रों की ज़ियारत करते समय जो दुआयें साबित हैं उन में सेः «السلام عليكم دار قوم مؤمنين، وإِنا إِن شاء الله بكم لاحقون» “अस्सलामु अलैकुम दार क़ौमिम् मुमिनीन, व इन्ना इन् शा अल्लाहु बिकुम लाहिक़ून।” “ऐ मुसलमान बस्ती वालो! और अगर अल्लाह ने चाहा तो हम भी तुम्हें मिलने वाले हैं।” {मुस्लिमः 249} अथवाः «السلام على أهل الديار من المؤمنين والمسلمين، ويرحم الله المستقدمين منا والمستأخرين، وإِنا إِن شاء الله بكم للاحقون» “अस्सलामु अहलिद्दियारि मिनल् मुमिनीन वल्मुस्लिमीन, व यरहमुल्लाहुल् मुस्तक़दिमीन मिन्ना वल्मुस्तअ्ख़िरीन, व इन्ना इन् शा अल्लाहु बिकुम ललाहिक़ून।” “ऐ मुमिन और मुसलमान बस्ती वालो! और अल्लाह तआला हम में से पहले गुज़रने वाले तथा बाद में गुज़रने वाले सब पर रहम फ़रमाये। और अगर अल्लाह ने चाहा तो हम भी तुम्हें मिलने वाले हैं।” {मुस्लिमः 974} « السلام عليكم أهل الديار من المؤمنين والمسلمين، وإنا إن شاء الله للاحقون، أسأل الله لنا ولكم العافية » “अस्सलामु अलैकुम अहलद्दियारि मिनल् मुमिनीन वल्मुस्लिमीन, व इन्ना इन् शा अल्लाहु बिकुम लाहिक़ून, अस्अलुल्लाह लना व लकुमुल् आफ़िया।” “ऐ मुमिन और मुसलमान बस्ती वालो! और अगर अल्लाह ने चाहा तो हम भी तुम्हें मिलने वाले हैं। मैं अल्लाह से अपने और तुम्हारे लिए आफ़ियत का सवाल करता हूँ।” {मुस्लिमः 975}