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पाठ मुहम्मदर् रसूलुल्लाह की शहादत का अर्थ

मुहम्मदर् रसूलुल्लाह की शहादतः यानी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह के रसूल हैं की गवाही देना, यह शहादतैन (दोनों गवाही) का दूसरा हिस्सा है। आप इस पाठ में उस के अर्थ और उस के तक़ाज़े के संबंध में जानकारी प्राप्त करेंगे।

• मुहम्मदर् रसूलुल्लाह की शहादत के अर्थ की जानकारी

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मुहम्मदर् रसूलुल्लाह की शहादत का अर्थ

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की ख़बरों की तसदीक़ (पुष्टि) करना, आप के हुक्मों को बजा लाना (आज्ञा पालन करना) तथा मना कर्दा चीज़ों से परहेज़ करना, और आप की शरीअत, तालीमात व शिक्षा के मुताबिक़ अल्लाह की इबादत करना। और यह निम्नोक्त बातों को शामिल हैः

1- जो ख़बरें रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने दी हैं सारे मैदानों (क्षेत्रों) में उन की तसदीक़ करना, और उन में सेः

١
ग़ैबी उमूर (अदृश्य विषयों), यौमे आख़िरत (क़ियामत), जन्नत और उस की नेमतों तथा जहन्नम और उस के अज़ाब के संबंध में आप की दी हुई ख़बरों की तसदीक़ करना।
٢
क़ियामत के दिन की घटनाओं तथा उस की अलामतों और आख़िरी ज़माना में होने वाली चीज़ों के बारे में आप की दी हुई ख़बरों की तसदीक़ करना।
٣
अगलों और पिछलों की बातों तथा नबीयों और उन की क़ौमों के दरमियान संघटित घटनाओं के मुतअल्लिक़ आप की दी हुई ख़बरों की तसदीक़ करना।

2- रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के हुक्मों को बजा लाना तथा मना कर्दा चीज़ों से परहेज़ करना, और यह कई चीज़ों को शामिल हैः

١
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने हमें इबादतों, नेक कामों और अच्छे अख़लाक़ में से जिस बात का हुक्म दिया है उसे बजा लाना।
٢
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने हमें जिन विषयों -जैसे हराम चीज़ें, बुरे अख़लाक़ और गंदे चाल चलन आदि- से मना फ़रमाया है उन से दूर रहना। और ईमान रखना कि इन हराम चीज़ों से हमें हमारी भलाई के लिए तथा किसी ऐसी हिक्मत के पेशे नज़र (रहस्य के कारण) रोका है जिसे अल्लाह तआला ने चाहा है, अगर चे कभी कभार वह हिक्मत हम पर पोशीदा रहती है।
٣
यक़ीन रखना कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपनी ख़ाहिशात (इच्छा) से कुछ नहीं बोलते, बल्कि वह अल्लाह की ओर से वह्य है। जैसा कि अल्लाह तआला ने फ़रामायाः (مَنْ يُطِعِ الرَّسُولَ فَقَدْ أَطَاعَ الله) (النساء: 80) “जो रसूल की इताअत करे निश्चय उस ने अल्लाह की इताअत की।” {अन्निसाः 80}
٤
इस बात पर ईमान रखना कि जो शख़्स नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के हुक्म की मुख़ालफ़त (विरोधिता) करे वह दर्दनाक अज़ाब का मुस्तहिक़ (योग्य) है। जैसा कि अल्लाह तआला ने फ़रमायाः (فَلْيَحْذَرِ الَّذِينَ يُخَالِفُونَ عَنْ أَمْرِهِ أَنْ تُصِيبَهُمْ فِتْنَةٌ أَوْ يُصِيبَهُمْ عَذَابٌ أَلِيم) (النور: 63). “सुनो जो लोग रसूल के हुक्म की मुख़ालफ़त करते हैं उन्हें डरते रहना चाहिये कि कहीं उन पर कोई ज़बरदस्त आफ़त न आ पड़े या उन्हें दर्दनाक अज़ाब न पहुँचे।” {अन्नूरः 63}

3- हम नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की लाई हुई शरीअत के मुताबिक ही अल्लाह की इबादत करें। और यह उन चंद चीज़ों को शामिल है जिन पर ज़ोर देना वाजिब हैः

आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की इक़्तिदा (अनुसरण) करना

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हमारे लिए नमूना और मॉडल (आदर्श) हैं। और बंदा अपने रब से उस वक़्त क़रीब होता है तथा अपने मौला के पास उस के दर्जे बुलंद होते हैं, जब वह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत की इक़्तिदा और आप के तौर तरीक़े -जैसे आप के अक़्वाल व अफ़्आल और मुवाफ़क़ा व तक़रीर (कथनी व करनी और सम्मति व समर्थन)- की पाबंदी ज़्यादा करता है। अल्लाह तआला ने फ़रमायाः (قُلْ إِنْ كُنْتُمْ تُحِبُّونَ اللهَ فَاتَّبِعُونِي يُحْبِبْكُمُ اللهُ وَيَغْفِرْ لَكُمْ ذُنُوبَكُمْ وَاللهُ غَفُورٌ رَحِيم) (آل عمران: 31). “कह दीजिये कि अगर तुम अल्लाह से महब्बत रखते हो तो मेरी ताबेदारी करो ख़ुद अल्लाह तुम से महब्बत करेगा और तुम्हारे गुनाह माफ़ फ़रमा देगा और अल्लाह बड़ा बख़्शने वाला मेहेरबान है।” {आलि इम्रानः 31}

इस्लामी शरीअत कामिल है

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने दीन और शरीअतों को बिला किसी कमी के पूरे तौर पर पहुँचा दिया है। अतः किसी के लिए किसी ऐसी इबादत का ईजाद करना जायज़ नहीं है जिसे हमारे लिए रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मशरू (शरीअत सम्मत) नहीं किया है।

अल्लाह की शरीअत हर ज़मान व मकान के लिए फिट और मुनासिब है

दीन के वह अहकामात और शरीअतें (विधि विधान) जो अल्लाह की किताब और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत में मज़कूर हैं हर ज़मान व मकान के लिए फिट और मुनासिब हैं। क्योंकि बशर की मसलहतों (मानव की हितों) को उस से ज़्यादा कोई नहीं जानता जिस ने उन को पैदा किया तथा उन्हें अदम से वुजूद (अनस्तित्व से अस्तित्व) में लाया।

अमल का सुन्नत के मुताबिक़ होना

किसी भी इबादत के क़बूल होने के लिए ज़रूरी है कि उस में अल्लाह के लिए नीयत ख़ालिस हो और वह उस तरीक़े के मुताबिक़ हो जो हमारे लिए रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मुक़र्रर फ़रमाया है। जैसा कि अल्लाह तआला ने फ़रमायाः (فَمَنْ كَانَ يَرْجُو لِقَاءَ رَبِّهِ فَلْيَعْمَلْ عَمَلًا صَالِحًا وَلَا يُشْرِكْ بِعِبَادَةِ رَبِّهِ أَحَدًا) (الكهف: 110). “पस जिसे भी अपने रब से मिलने की आर्ज़ू हो उसे चाहिये कि नेक अमल करे और अपने रब की इबादत में किसी को भी शरीक न करे।” {अलकह्फ़ः 110} नेक अमल यानी ऐसा अमल जो दुरुस्त हो नीज़ नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत के मुताबिक़ हो।

दीन व शरीअत में नई ईजाद हराम है

अल्लाह तआला की इबादत की ग़र्ज़ से जो व्यक्ति कोई ऐसा अमल ईजाद करे जो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत में से न हो -जैसे शरई तरीक़ा के ख़िलाफ़ कोई नमाज़ ईजाद करे- तो वह आप के हुक्म का मुख़ालिफ़ है, नीज़ वह इस अमल के कारण गुनाहगार है और उस का यह अमल मर्दूद (प्रत्याख्यात व वर्जित) है। जैसा कि अल्लाह तआला ने फ़रमायाः (فَلْيَحْذَرِ الَّذِينَ يُخَالِفُونَ عَنْ أَمْرِهِ أَنْ تُصِيبَهُمْ فِتْنَةٌ أَوْ يُصِيبَهُمْ عَذَابٌ أَلِيم) (النور: 63). “सुनो जो लोग रसूल के हुक्म की मुख़ालफ़त करते हैं उन्हें डरते रहना चाहिये कि कहीं उन पर कोई ज़बरदस्त आफ़त न आ पड़े या उन्हें दर्दनाक अज़ाब न पहुँचे।” {अन्नूरः 63} और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः "من أحدث في أمرنا هذا ما ليس منه فهو رد" (البخاري 2550، مسلم 1718). “जिस ने हमारे इस अम्र यानी शरीअत में नई चीज़ ईजाद किया जो उस में से नहीं है तो वह मर्दूद है।” {बुख़ारीः 2550, मुस्लिमः 1718}

आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से महब्बत करना

ईमान का एक लाज़िमी हिस्सा है कि मुमिन के नज़दीक अल्लाह और उस के रसूल तमाम चीज़ों से ज़्यादा महबूब हूँ। जैसा कि नबी रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः "لا يؤمن أحدكم حتى أكون أحب إليه من والده وولده والناس أجمعين". (البخاري 15، مسلم 44). “तुम में से कोई मुमिन नहीं हो सकता यहाँ तक कि मैं उस के नज़दीक उस के वालिद, उस की औलाद और तमाम लोगों से ज़्यादा महबूब बन जाऊँ।” {बुख़ारीः 15, मुस्लिमः 44}

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