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पाठ कुरआने करीम की तफसीर (व्याख्या) और उस की आयतों पर ग़ौर व फ़िक्र (चिंतन) करना
क़ुरआने करीम की तफ़सीर और उस पर तदब्हुर
हर मुसलमान को क़ुरआने करीम को सही ढंग से पढ़ने, उस पर ग़ौर व फ़िक्र करने और उस के अर्थों, आदेशों और निषेधों पर चिंतन करने, उस की व्याख्या और नियमों को सीखने, फिर उस पर अमल कर के इस दुनिया और आख़िरत में सआदत मंदी (ख़ुश नसीबी) हासिल करने के लिए उत्सुक होना चाहिए।
तदब्बुर का अर्थ
तदब्बुरः यानी आयतों से फ़ायदा उठाने तथा अनुपालन करने के लिए उन के पास ठहर कर उन में ग़ौर व फ़िक्र करना तथा उन के साथ सक्रीय होना।
क़ुरआने करीम की आयतों में ग़ौर व फ़िक्र करने वाले को चाहिये कि उन के संक्षिप्त अर्थों (मुख़तसर मआनी) की जानकारी प्राप्त करे, ताकि उस का तदब्बुर तथा उस की समझ सही हो।
क़ुरआने करीम में तदब्बुर करने का दर्जा व मर्तबा
हर मुसलमान को चाहिए कि वह इस महान क़ुरआन पर मनन करे, इस की आयतों और अर्थों को समझे और इस के साथ जिए। अल्लाह तआला ने फ़रमायाः ﴿كِتَابٌ أَنْزَلْنَاهُ إِلَيْكَ مُبَارَكٌ لِيَدَّبَّرُوا آيَاتِهِ وَلِيَتَذَكَّرَ أُولُو الْأَلْبَابِ﴾ [ص: 29]، “यह बाबरकत किताब है जिसे हम ने आप की तरफ़ इस लिए नाज़िल फ़रमाया है कि लोग उस की आयतों पर ग़ौर व फ़िक्र करें और अक़्लमंद इस से नसीहत हासिल करें।” {स्वादः 29} और फ़रमायाः ﴿أَفَلَا يَتَدَبَّرُونَ الْقُرْآنَ أَمْ عَلَى قُلُوبٍ أَقْفَالُهَا﴾ [محمد: 24]. “क्या यह क़ुरआन में गौर व फ़िक्र नहीं करते या उन के दिलों पर ताले लग गये हैं।” {मुहम्मदः 24}
तफ़सीरः यानी क़ुरआने करीम के अर्थों को स्पष्ट करना।
तफ़सीर का महत्व और उस की आवश्यकता
इल्मे तफ़सीर (व्याख्या शास्त्र) सब से अधिक लाभजनक शास्त्रों में से एक है। यह अल्लाह तआला की पुस्तक से संबंधित है, और उस के कलाम को समझने तथा उस की मुराद व मंशा की जानकारी में मदद करता है। और व्याख्या शास्त्र के माध्यम से क़ुरआने करीम के वह अर्थ जाने जाते हैं, जो मुस्लिम को नेक कामों के लिए निर्देशित करने, अल्लाह तआला की संतुष्टि प्राप्त करने और उस की जन्नतों में कामयाबी हासिल करने में मदद करते हैं। और वह इस तरह कि उस के उन आदेशों पर अमल करे, जिन का उल्लेख उस की पवित्र किताब में किया गया है, उस के निषेधों से परहेज़ करे, उस के क़िस्सों से सबक ले और उस की खबरों पर विश्वास करे। नीज़ व्याख्या के ज्ञान से मनुष्य सत्य को असत्य से अलग कर सकता है, और आयतों के मआनी और उन के वास्तविक अर्थों तक पहुंचने में हर तरह का भ्रम भी दूर हो जाएगा।
कुरआन के अर्थों और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से इस की तफ़सीर जानने में सहाब-ए- किराम की रुचि
सहाब-ए- किराम को कुरआन के समझने में जहाँ जटिलता होती थी वे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से उस के संबंध में पूछ लिया करते थे। अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु से रिवायत है, उन्हों ने कहाः जब यह आयत ﴿ الَّذِينَ آمَنُوا وَلَمْ يَلْبِسُوا إِيمَانَهُمْ بِظُلْمٍ﴾ [الأنعام: 82] यानीः जो लोग ईमान लाये और अपने ईमान को अन्याय (शिर्क) से लिप्त नहीं किया---। नाज़िल हुई, तो सहाब-ए- किराम को दुशवारी हो गई और कहने लगेः हम में कौन है जिस ने अपने नफ़्स पर ज़ुल्म नहीं किया? तो रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः “ये वैसा नहीं है जैसा तुम गुमान कर रहे हो, बल्कि यह उस तरह है जैसा लुक़मान अलैहिस्सलाम अपने बेटे से कहा थाः ﴿ يَا بُنَيَّ لاَ تُشْرِكْ بِاللَّهِ إِنَّ الشِّرْكَ لَظُلْمٌ عَظِيمٌ ﴾ [لقمان: 13] ऐ मेरे बेटे! अल्लाह के शिर्क न करना, बेशक शिर्क विराट अन्याय (महा ज़ुल्म) है।” {बुख़ारीः 6937, मुस्लिमः 124}
कुरआने करीम की तफ़सीर करने और उस के अर्थ जानने में निम्नलिखित विधियों और तरीक़ों की तरफ़ रुजू करे:
1- क़ुरआन से क़ुरआन की तफ़सीर
क्योंकि अल्लाह ही ने इसे नाज़िल फ़रमाया है, और वही अपनी मुराद को सब से अधिक जानने वाला है।
जैसे अल्लाह तआला का फ़रमानः ﴿ أَلَا إِنَّ أَوْلِيَاءَ اللَّهِ لَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُونَ الَّذِينَ آمَنُوا وَكَانُوا يَتَّقُونَ ﴾ [يونس:62- 63] “सुनो! जो अल्लाह के औलिया हैं, न उन्हें कोई भय होगा, और न वह उदासीन होंगे। जो ईमान लाये और तक़वा इख़्तियार किये।” {यूनुसः 62-63} अल्लाह ने ख़ुद أَوْلِيَاءَ اللَّهِ (यानी अल्लाह के औलिया) की तफ़सीर अपने इस फरमान (الَّذِينَ آمَنُوا وَكَانُوا يَتَّقُونَ) यानी (जो ईमान लाये और तक़वा इख़्तियार किये) से की।
2- हदीस के ज़रीया क़ुरआन की तफ़सीर
क्योंकि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह के मुबल्लिग़ यानी उस की ओर से प्रचारक हैं. लिहाज़ा वह अल्लाह के कलाम के मतलब को लोगों में सब से अधिक जानने वाले हैं।
और इस की मिसालों में सेः नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का (क़ुव्वत) की तफ़सीर (रमी) से करना। उक़्बा बिन आमिर रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है, उन्हों ने कहाः मैं ने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को मिम्बर पर फ़रमाते हुये सुनाः ﴿ وَأَعِدُّوا لَهُمْ مَا اسْتَطَعْتُمْ مِنْ قُوَّةٍ ﴾ [الأنفال: 60] “तथा तुम से जितनी हो सके शक्ति तैयार रखो।” आगाह रहो! बेशक क़ुव्वत (यानी शक्ति) रमी है (यानी तीर आदि चलाना है), आगाह रहो! बेशक क़ुव्वत (यानी शक्ति) रमी है (यानी तीर आदि चलाना है), आगाह रहो! बेशक क़ुव्वत (यानी शक्ति) रमी है (यानी तीर आदि चलाना है)। {मुस्लिमः 1917}
3- सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम की तफ़सीर
वे इस के बारे में अधिक जानकार हैं: क्योंकि उन्हों ने उन सबूतों और परिस्थितियों को देखा जिन में वे अद्वितीय थे, और क्योंकि उन के पास पूरी समझ, सही ज्ञान और नेक कर्म थे।
और इस की मिसालों में सेः अल्लाह तआला के फ़रमान मेंः ﴿ وَإِنْ كُنْتُمْ مَرْضَى أَوْ عَلَى سَفَرٍ أَوْ جَاءَ أَحَدٌ مِنْكُمْ مِنَ الْغَائِطِ أَوْ لامَسْتُمُ النِّسَاءَ﴾ [النساء: 43] “और अगर तुम बीमार हो या सफ़र में रहो अथवा तुम में से कोई क़ज़ा-ए- हाजत से आये या बीवीयों को छूये।” इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से साबित है कि उन्हों ने छूने की तफ़सीर सहवास से की है। {तफ़सीर तबरीः 8/389}
4- ताबेईन की तफ़सीर
जिन्हों ने सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम से तफ़सीर अख़्ज़ करने का एहतेमाम (लेने का प्रयत्न) किया। क्योंकि ताबेईन सहाबा के बाद सब से अच्छे लोग हैं, और अपने बाद आने वाले लोगों के मुक़ाबिले में शहवत परस्ती से ज्यादा सुरक्षित हैं। और अरबी भाषा उन के युग में ज्यादा नहीं बदली, इस लिए वे कुरआन की सही समझ में उन से ज़्यादा करीब थे, जो उन के बाद आए।
कुरआन की तफ़सीर में मुसलमान का कर्तव्य
जब मुसलमान को कुरआन को समझने और उस के अर्थों को जानने में कोई कठिनाई हो, तो उसे आयतों के अर्थों तथा व्याख्या विश्लेषण में तफ़सीर की पुस्तकों और मोतबर मुफ़स्सिर विद्वानों की बातों की ओर रुजू करना चाहिये।
कुरआने करीम की तफ़सीर करना हर मुसलमान का काम नहीं है; बल्कि यह तफ़सीर के जानकार विद्वानों का काम है। इस लिए साधारण मुसलमानों को ज्ञान के बिना इस के लिए पेश क़दमी नहीं करनी चाहिए। क्योंकि मुफ़स्सिर अल्लाह की तरफ़ से एक अनुवादक है, उस पर शाहिद है कि कलाम से उस की मुराद क्या है। और उसे इस गवाही की ताज़ीम करना चाहिए, तथा इस बात से डरना चाहिए कि वह बग़ैर इल्म के अल्लाह पर कुछ कह कर उस चीज़ में वाक़े हो जाये जिसे उस ने हराम किया है। जिस के कारण क़ियामत के दिन ज़िल्लत का शिकार होना पड़े। अल्लाह तआला ने फ़रमायाः ﴿ قُلْ إِنَّمَا حَرَّمَ رَبِّيَ الْفَوَاحِشَ مَا ظَهَرَ مِنْهَا وَمَا بَطَنَ وَالْأِثْمَ وَالْبَغْيَ بِغَيْرِ الْحَقِّ وَأَنْ تُشْرِكُوا بِاللَّهِ مَا لَمْ يُنَزِّلْ بِهِ سُلْطَاناً وَأَنْ تَقُولُوا عَلَى اللَّهِ مَا لا تَعْلَمُونَ﴾ [الأعراف: 33]. “(ऐ नबी!) आप कह दें कि मेरे रब ने तो केवल खुले तथा छुपे कुकर्मों और पाप तथा अवैध विद्रोह को ही हराम किया है, तथा इस बात को कि तुम उसे अल्लाह का साझी बनाओ जिस का कोई तर्क उस ने नहीं उतारा है तथा अल्लाह पर ऐसी बात बोलो जिसे तुम नहीं जानते।” {अल-आराफ़ः 33}
कुरआने करीम की तफ़सीर में कई किताबें वर्गीकृत हैं, और चूंकि वे स्वीकृति के मामले में समान दर्जे के नहीं हैं, इस लिए मुसलमानों का यह कर्तव्य है कि वे विश्वसनीय व्याख्याओं पर भरोसा करें जिन के लेखकों ने व्याख्या के नियमों का पालन किया है। उन किताबों में जो प्रमुख हैं उन में सेः